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महाकुंभ: अव्यवस्था, बढ़ती भीड़ और प्रशासनिक लापरवाही का दंश
हाल ही में दिल्ली रेलवे स्टेशन पर महाकुंभ के लिए जाने वाले यात्रियों की भगदड़ ने न केवल इंतजामों की पोल खोल दी बल्कि यह भी दर्शा दिया कि बढ़ती जनसंख्या और अव्यवस्था के कारण हमारा सिस्टम किस तरह चरमराने की कगार पर है। महाकुंभ जैसी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी घटनाएं प्रशासन की तैयारियों और भीड़ नियंत्रण को लेकर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करती हैं।
अनियंत्रित भीड़ और अव्यवस्था का आलम
दिल्ली रेलवे स्टेशन की घटना महज एक उदाहरण है, लेकिन इस तरह की घटनाएं बार-बार दोहराई जाती हैं। रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, प्रमुख धार्मिक स्थल और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भीड़ नियंत्रण की नाकामी एक नियमित समस्या बन चुकी है। यह स्थिति केवल सरकारी अव्यवस्था की पोल नहीं खोलती बल्कि हमारी सामूहिक अनुशासनहीनता को भी उजागर करती है।
रेलवे टिकट वितरण की व्यवस्था का भी यही हाल है। टिकट बांटने वाला बिना किसी समुचित निगरानी के टिकट देता जाता है, और यात्रियों को किसी निश्चित क्रम में खड़ा करने की कोई व्यवस्था नहीं होती। लोग अपनी बारी की प्रतीक्षा करने के बजाय जबरन लाइन तोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं, जिससे स्थिति और भी अराजक हो जाती है।
बढ़ती जनसंख्या और प्रशासनिक उदासीनता
आज बढ़ती जनसंख्या भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। लेकिन इस समस्या से निपटने के लिए न तो उचित संसाधनों का विस्तार किया जा रहा है और न ही बुनियादी सुविधाओं को बढ़ाया जा रहा है। महाकुंभ जैसे आयोजनों में यह साफ दिखाई देता है कि जबरदस्त भीड़ के बावजूद रेलवे, परिवहन और अन्य सार्वजनिक सेवाओं की क्षमता सीमित ही रहती है।
रेल मंत्री द्वारा अक्सर यह दावा किया जाता है कि कितनी हजार रेलगाड़ियां महाकुंभ के लिए चलाई जा रही हैं, लेकिन भीड़ नियंत्रण और सुविधा प्रबंधन अभी भी बेहद कमजोर है। प्रशासनिक अधिकारियों का रवैया लापरवाही भरा है, और वे घटनाओं के बाद ही सक्रिय होते हैं, जबकि इन समस्याओं का पूर्वानुमान और समाधान पहले से तैयार किया जाना चाहिए।
शिक्षा की कमी और अनुशासनहीनता
भगदड़ और अव्यवस्था केवल प्रशासन की गलती नहीं है, बल्कि हमारे समाज की शिक्षा प्रणाली की भी विफलता को दर्शाती है। हम अब तक लोगों को लाइन में खड़ा रहना, अपनी बारी का इंतजार करना, और सार्वजनिक स्थलों पर अनुशासित व्यवहार करना नहीं सिखा पाए हैं। यह समस्या केवल रेलवे स्टेशन तक सीमित नहीं है, बल्कि हर उस स्थान पर दिखाई देती है जहां भीड़ जुटती है।
क्या यही हमारी शिक्षा और संस्कारों का हिस्सा होना चाहिए? धार्मिक आयोजनों में शामिल होना हमारी परंपरा है, लेकिन क्या यह परंपरा अव्यवस्था और अराजकता के साथ जुड़ी होनी चाहिए?
व्यवस्था का अभाव और जनता की बेबसी
मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों के लिए एक गाड़ी खराब होने पर तुरंत दूसरी गाड़ी का प्रबंध किया जाता है, लेकिन आम जनता के लिए ऐसी कोई सुविधा नहीं है। ट्रेन के लेट होने की स्थिति में न तो कोई वैकल्पिक गाड़ी चलाई जाती है और न ही यात्रियों को किसी अन्य सुविधा की जानकारी दी जाती है। यह स्थिति हमारी प्रशासनिक उदासीनता को दर्शाती है।
यात्रियों के लिए रेलवे स्टेशन पर सुविधाओं की भारी कमी है। लंबी यात्राओं के दौरान पानी, शौचालय और प्रतीक्षालय की हालत भी दयनीय रहती है। क्या यही सनातन धर्म की सेवा मानी जाती है? धार्मिक यात्राओं को सुगम बनाने के बजाय, उन्हें कष्टदायक और जीवन संकट में डालने वाली स्थिति बना दिया गया है।
समाधान की दिशा में क्या किया जा सकता है?
महाकुंभ जैसे आयोजन भारतीय संस्कृति की पहचान हैं, लेकिन इनकी सफलता व्यवस्था और अनुशासन पर निर्भर करती है। जब तक सरकार और आम जनता दोनों अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझेंगे, तब तक हर बार ऐसी घटनाएं दोहराई जाती रहेंगी और आम लोग पीड़ित होते रहेंगे।
इस विश्लेषण के द्वारा मैंने महाकुंभ में अव्यवस्था, बढ़ती भीड़ और प्रशासनिक लापरवाही पर एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। यदि इस पर सही कदम उठाए जाएं, तो भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है।
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